औरत, आदमी और छत , भाग 8
भाग,8
अच्छा जी अहोभाग्य हमारे। सब्जी काट दूं , वही बनेगा न नमकीन दलिया।
तुम्हारी मर्जी है नीरजा ,गर कहो तो दलिया बना लेते हैं।
पर आज मुझे बताओ ताकि मुझे भी बनाना आ जाए।
अरे कोई मुश्किल थोड़े ही है। आ जाओ बनाते हैं। मिन्नी के निर्देशन में मेरा बना दलिया भी बहुत अच्छा बना था।
वो बंद पैकिटस मेज पर ही रखे थे।
मिन्नी रसोई समेट रही थी।
मिन्नी ये पैकिटस तुम्हारे हैं या किसी और के लिए दे ग ए थे वीरेंद्र।
अरे नहीं नहीं, अपने ही हैं। उन के कोई जानपहचान वाले जयपुर ग ए थे,तो मैने भी कुछ सामान मंगवा लिया था।
क्या मंगवाया है?
देख लो न खोलकर ,वो शायद मेरे प्रश्न से अचकचा गई थी।
मैने भी उसे इस स्थिति से उबारने में मदद की।
आओ देखते हैं।
तुम खोलो न आ रही हूँ।
पहले पैकिट में एक डिब्बा था, जिसमे एक बहुत ही प्यारी लाल और हरे रंग की बंधेज शिफान की साड़ी थी।
दूसरे पैकेट में बंधेज के ही दो दुपट्टे और एक बहुत प्यारा कॉटन का कुर्ता था।
तीसरे बड़े पैकेट दो डिब्बे थे। एक मे दो जोड़ी जयपुरी जुत्ती और एक बहुत ही प्यारी गुड़िया का पैक।एक छोटे डिब्बे में एक जोड़ी छोटे कड़े और जयपुरी मीना कारी से सुसज्जित चूड़ियों का डिब्बा था।
मिन्नी भी आ गई थी।
तुम साड़ी पहनती .हो मिन्नी?
नहीं मेरे प्रोफेशन में साड़ी की गुजांइश कहाँ डियर।
पर ये तो बहुत ही प्यारीऔर सुंदर साड़ी है, मैने सामान के नीचे से साड़ी का डिब्बा निकाला था।
अच्छा, हाँ, वो कभीकभार पहनने के लिए मंगवा ली थी।
वो मेरे ही पा स आकर बैठ गई थी सारे सामान को बहुत ही औपचारिक ढंग से निहार रही थी।
मिन्नी
हाँ बोलो
तुम तो ये सारा सामान ऐसे निहार रही हो जैसे ये तुम्हारा खुद का न होकर मेरा दिया तोहफ़ा है।
चलो ये चूङियाँ पहन कर देखो, तुम्हें पूरी भी आरही है कि नहीं।
मैने उसे चूडिय़ाँ व जूती पहनवा कर देखी ,दोनों बहुत अच्छे तरीके से पहनी गई, जैसे की लाने वाले को साईज का पूरा पता हो।
ये छोटीसी प्यारी जूती ,
रीतिका के लिए,किसी ने बताया था कि वहाँ प्यारी जूतियाँ मिलती हैं।मेरी बात खत्म होने से पहले ही उसने कहा था।
पर जो भी सामान लाया है उसे लेडीज़ सामान का अच्छा ज्ञान है।
वो वीरेंद्र के दोस्त और उन की वाईफ गए थे,तो एक लेडी को दूसरी लेडी की रूचि का अंदाज तो हो ही जाता है।
हाँ ये तो है। मैने भी उसके झूठ में उसका सर्मथन किया था क्योंकि मैं उन दोनों की बातें भी सुन चुकी थी और मिन्नी के हाव भाव भी उस के झूठ का सर्मथन नहीं कर रहे थे।
उसने सारा सामान उठा कर अलमारी में लगा दिया था।
हमलोग सोने की तैयारी में थे कि जैसे कुछ याद आया हो मिन्नी को, बोली तुम सो जाओ,नीरजा मैं जरा एक आर्टिकल लिख लूं , भूल ही गई थी सुबह भेजना है ज़रूरी।
वो चेयर ओर टेबल लेकर गैलरी में चली गई थी।
में भी मिनी ओर वीरेंद्र की बातें ओर समान के बारे में सोचती हुई नींद के आगोश में चली गई थी।
मुझे नहीं पता वो कब सोई।हाँ सुबह उसकी खटरपटर से आँख खुली थी मेरी।पूरे सात बजे गए थे। अपनी लेटे उठने की आदत कैसे छोडूं। आँखे मसलती हुई मैं उठ कर बाथरूम चली गई थी।
मैं ब्रश करके बाहर निकली तो कमरे में कोई नहीं था। गैंस पर रखें कूकर मेंं सीटी बज रही थी। हाँ गैंस धीमी थी। मैने भी दूसरे चुल्हे को धीमा करके चाय चढ़ा दी थी।.
तभी मिन्नी अंदर आ गई थी। गुडमार्निंग नीरजा।
वैरी गुडमार्निंग डियर, सुबह सुबह कहाँ चली गई थी।
अरे वो सरोज दीदी है न जिनके साथ तुम्हें पहले कमरा दिया गया था,उन की तबीयत खराब थी,तो उन्हीं को चाय देकर आई हूँ।।
पर उन का तो बीपी हाई रहता है,फिर चाय।
दूध वाली नहीं नीबूं की चाय डाक्टरनी साहिबा।
मैं हम दोनों की चाय भी छान लाई थी।
थेंक्स भ्ई नीरजा इस की तो बहुत जरूरत महसूस हो रही थी।
ये कूकर क्या खिलाने वाला है आज।बहुत सीटी बजा रहा है।
आज आप मिन्नी के हाथ के राजमां चावल और रोटी खाने वाली हैं।
पर राजमां के साथ रोटी कौन खाता है।
अच्छा तुम भी नहीं खाती रोटी राजमां।
मिन्नी गैलरी से सामान उठा कर नहाने घुस गई थी।
मैंने साफ कमरे को थोड़ा और सवारने की कोशिश की थी।
वो नहाकर निकली थी आज उसने वहीं जयपुर वाला कुरता पहना था।
बहुत प्यारा लग रहा है मिन्नी।
शुक्रिया मैडम नहा लो। उसने हँसते हुऐ कहा था।
रसोई में जाकर दाल निकालने लगी वो।
दाल क्यों धो रही हो मिन्नी।
अरे सरोज दी के लिए थोड़ी खिचड़ी बना देते हैं बीमार हैं सारा दिन भूखी रहेंगी तो और बीपी बढ़ जायेगा।
तो तुम मुझे कह देती मैं खाली ही तो थी।
अरे बाद में याद आया कि बीपी वाले के लिए राजमां चावल ठीक नहीं।खैर तुम नहाने से पहले ये प्याज काट दो
।उसने भीगे हुए चावलों से थोड़े चावल दाल में मिला दिए थे।खिचड़ी के लिए। एक गैंस पर चावल उबलने रख दिए थे।
मैं नहाकर निकली तब तक खिचड़ी, भी तैयार थी राजमां भी तैयार थे। ताजी बनी रोटी में से जो खुशबू आती है वो भी रसोई में बरकरार थी।मैं कुछ पूछती इस से पहले ही वो बोली,नीरजा सवा आठ हो ग ए हैं प्लीज दीदी को ये खिचड़ी दे आओ।और हाँ उन की रसोई में नीबूं रखे हैं उठा कर उनके पास रख देना।उन को बोलना दवाई भी लेलें और ये खा भी लें।
मै खिचड़ी उठा कर दीदी के कमरे में गई, दस्तक का जवाब, खुला है आ जाओ।
मैं दरवाजा धकेल कर अंदर गई थी, नमस्ते दीदी मैं नीरजा, मिन्नी ने ये खिचड़ी भेजी है आप के लिए।
अच्छा नीरजा , तो मिन्नी के साथ रहती हो तुम।
जी दीदी।मैने उनकी रसोई से नीबूं उठा कर उनकी टेबल पर रख दिया था।दीदी खा लीजिएगा।
थेंक्स बेटा तुम दोनों का बहुत बहुत।
अरे नहीं दी, प्लीज, शाम को मिलते हैं आप से अपना ध्यान रखिएगा।
उनकी लाल नम आँखों में दर्द के साथ एक दुआ भी थी।
मैं कमरे में आई तो सब कुछ तैयार था मिन्नी चाय छान रही थी एक प्लेट में लड्डू भी निकले हुऐ थे।मैने फटाफट कंघी करनी शुरू करदी।
नीरजा तुम्हारा लंच पैक है। बस चाय पी लो फटाफट।
उसने बड़े आराम से लड्डू के साथ चाय पी थी।उसे कोई जल्दी ही नहीं थी जैसे। फिर अपनी कागचों वाला फाईल चैक कर के उसने कल के पैकिटस वाले लिफाफे में कुछ डाला, शायद खाने की पैकिंग थी।
वो बाल बाधं कर दुपट्टों वाला हैंगर टटोल रही थी जैसे।
पर मिन्नी इस कुरते के साथ तुम्हें दुपट्टे की जरूरत नहीं शायद।
नहीं यार ले ही लेती हूँ। पता नहीं किधर रिपोर्टिग को जाना पड़ जाए।
वो गहरे नीले रंग की कॉटन की कुरती ओर बहुत ही हल्के नीले रंग की जींस पहने थी वो। तभी शायद उस को एक बहुत ही हल्के रंग का खद्दर का स्टोल मिल गया था, जिस में एक रंग हल्का सा नीला भी था।
ये चलेगा न नीरजा,
चलेगा नही दोड़ेगा मिन्नी।
उसने अपना सामान उठाया और हम नीचे आ गए थे।
रोज का वही रूटीन थोड़ा चलते ही ऑटो मिल गया था।
मुझ से थोड़ी दूर पहले ही मिन्नी उतर गई थी।
वही आफिस़ वहीं दिनचर्या वक्त बीतता जा रहा था।
वीरेंद्र लगभग रोज ही आते थे, जिस दिन वो नहीं आते थे अपने काम की तपस्या में रत मिन्नी की आँखों में इतंजार स्पष्ट झलकता था। न कभी उसने इस बारे में कोई जिक्र किया था न ही कभी मैंने ही पूछने की कोशिश की थी।शायद भावनाओं के लिए अल़्फाज़ नहीं होते।
हलकी सरदी शुरू होने लगी थी। मुझे भी यहाँ आये महीना भर हो गया था।अगले सप्ताह चार छुटियाँ इकठ्ठी थी तो घर जाने का प्लान था। फिर तीन दिन के बाद दीवाली की तीन छुटियाँ थी। सोच रही थी गर्म कपड़े तभी ले आऊँगी। सुबह शाम की सरदी थी।
कल मैने घर जाना था।शाम के छह बज गए थे मिन्नी अभी नहीं आई थी। मैने पैकिंग कर ली थी जाने के लिए। तभी मिन्नी भी आ गई थी।
ये पैकिंग ,कहीं जा रही हो क्या नीरजा।
यार चार दिन की छुट्टियां है घर जाकर आती हूँ।गर्म कपड़े भी तो लाने हैं।
तुम चली जाओगी ,बड़ा उदास सा स्वर था उसका।आँखे किसी शुन्य में थी।
क्या हुआ मिन्नी?
कुछ नहीं यार इन चंद दिनों में तुम्हारी आदत पड़ गई थी।ऐनी वे,कितने बजे निकलोगी सुबह। वो शायद अपनी भावनाओं को छिपा रही थी।
तुम भी रीतिका को मिल आओ। दीवाली पर यहाँ ले आओ।
तुम्हें भी अच्छा लगेगा और उसे भी।
हाँ कोशिश करती हूँ मैं भी शायद कल ही निकल जाऊं दोपहर बाद। बेटी से मिले क ई दिन हो ग ए हैं।
हम अपने अपने गंतव्यों की तैयारी करते करते सो गए थे।
मै तो सुबह चाय पीकर बिना नहाये ही निकल ग ई थी। इतने दिनों बाद घर पहुंच कर बड़ा अच्छा लगा था।पर हर बात पे मुझे मिन्नी की उदास आँखे याद आ जाती। उसका ये कहना," तुम चली जाओगी"
ये चार दिन कैसे गुजर गए मुझे पता ही न चला। कल सुबह मुझे जाना था गर्म कपड़ें और कम्बल पैक कर लिया था।
तभी माँ ने आवाज़ दी थी।
रज्जो क्या कर रही हो इधर आओ तो।
माँ चौबारे पर खड़ी थी,इसका मतलब ये था कि वो भाभी से अलग मुझ से कुछ बात करना चाहती थी।
पिछली बार मैने तेरे बैग में अच्छे घी के लड्डू रखे थे।तूने खाये के नहीं खाये।
माँ तुम अच्छी तरह जानती हो, मैं तुम्हारे हाथ का बना कड़वा चूरन भी खा जाती हूँ, वो तो मेरी पसंद के मेरी माँ के बनाये अच्छे घी के लड्डू थे। बहुत अच्छे थे वो, मेरी सहेली को भी बहुतअच्छे लगे थे।
तूने खुद तो खाये नहीं होगें सब उस सहेली को ही खिला दिए होगें। मै़ जानती हूँ न तेरे को।
मे ने इस बार भी बना रखे हैं, पर तूं ही खाना। तूं कहे तो तेरी सहेली के लिए दूसरे घी के बना देती हूँ।
अरे माँ, ऐसा बिल्कुल मत करना, मेरी सहेली तो अच्छे घी से भी अच्छी है।
अच्छा बेटा ,फिर दोनों मिल कर खा लेना।
पर माँ मुझे तो अभी तीन बाद वापिस भी तो आना है, फिर ले जाऊँगी लड्डू।
अरी थोड़े ही हैं, फिर वो तेरी सहेली भी तो है अच्छे घी से भी अच्छी। दोनो खाना।
खाना खाकर मैं सो गई थी।नींद म़े भी आफ़िस जाने के सपनें
लेती रही। आज चार बजे ही आँख खुल गई थी।बाहर निकली तो एक शीत लहर माथे पर लगी थी। रसोई की लाईट जल रही थी।इस वक्त रसोई में कौन हो सकता है। जाकर देखा तो माँ पूरियां तल रही थी।
माँ आज क्या है जो इतनी सुबह सुबह ये सब बना रही हो।
अरे पूरियां और सब्जी बना दी है। सरदी है खराब तो होंगी नहीं। अपनी सहेली को भी खिलाना।
जा ब्रश कर ले ,चाय बन गई है, माँ ने बातों ही बातों में चाय बना दी थी। मुझे मिन्नी याद आ गई थी वो भी तो सब फटाफट कर लेती थी जैसे उसे हर इंसान को कब क्या जरुरत है पता हो।
चाय पीकर ,नहा कर मैं तैयार हो चुकी थी। माँ ने ढेर सारी पूरियाँ सब्जी अचार यहाँ तक की थर्मस में चाय भी डाल दी थी, जैसे मैं किसी लम्बी यात्रा पर जा रही हूँ।। पापा मुझे बस स्टैंड छोड़ आये थे, बस तैयार थी, चंद क्षण भी देर हो जाती तो बस निकल जाती।
बस में बैठते ही मैने खिड़की बंद कर ली थी।सवारियाँ बहुत कम थी। मैने अपनी शाल को पूरा खोल लिया था। सीट के साथ सिर टिकाये पता नहीं कब नींद आ गई थी। अभी मंजिल आने में आधा घंटा बचा था कि मेरी आँख खुल गई। बाहर धूप खिली हुई थी।
मैं उलझन में थी कि पहले आफिस़ जाऊं या पहले हॉस्टल । सामान पास म़े है तो आफिस़ जाना ठीक नहीं लगेगा। मिन्नी तो आफिस़ में ही होगी तो क्यों न पहले वहीं जाया जाये, वहाँ सामान भी रख दूगीं। मैं स्वयं को ही सलाह दे रही थी। तभी एक झटके से बस रूकी थी।बहुत से लोग एकदम बस में घुस आये थे। बहुत असुविधा हुई थी उतरने में। मैने वहीं से मिन्नी के आफिस़ का रिक्शा ले लिया था। मैने अपना पर्स व दोनों बैग सभांल लिए थे। आफ़िस के गैट पर एक चौकीदार नुमा बंदा बैठा था।
जी मृणाली मैडम आ गई क्या।
हाँ आप को मिलना है उनसे। आपका नाम?
आप प्लीज उन्हें कहें की नीरजा वत्स आई हैं।
क्रमशः
औरत आदमी और छत
लेखिका, ललिताविम्मी।
Aliya khan
07-Sep-2021 12:02 PM
बेहतरीन कहानी
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